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मुराक्बा
का सरलतम रूप यह है कि व्यक्ति एक शांत और उपयुक्त तापमान वाले स्थान पर, जहाँ अत्यधिक ठंडक या गर्मी न हो, शारीरिक आराम के
साथ बैठ जाए। वह अपने शरीर के सभी अंगों और तंत्रिका तंतुओं को ढीला छोड़कर एक ऐसी
मानसिक अवस्था का सृजन करे, जिसमें शरीर की उपस्थिति से मन
का ध्यान पूरी तरह हट जाए। गहरी साँसें ली जाएं, क्योंकि
गहरी श्वास लेने से श्वास की गति में संतुलन स्थापित होता है। आँखें बंद कर ली
जाएं और बंद आँखों से अपनी अंतरात्मा में झांकने का प्रयास किया जाए। विचार और
क्रियाएँ पूर्णतः पवित्र और शुद्ध होनी चाहिए। मानसिक शुद्धता का आशय यह है कि
किसी अन्य व्यक्ति के प्रति द्वेष, घृणा या ईर्ष्या न हो।
यदि किसी से कोई उपेक्षा या अन्याय हुआ हो, तो प्रतिशोध की
भावना न रखें और उसे माफ कर दिया जाए। जीवन की आवश्यकताओं और भौतिक संसाधनों के
लिए अंगों का कार्य संपूर्णता से किया जाए, परंतु अंततः
परिणाम को परमेश्वर के अधीन छोड़ा जाए। यदि यह आभास हो कि किसी से कष्ट हुआ है या
कोई गलती हुई है, तो बिना भेदभाव के, चाहे
वह व्यक्ति कमजोर, गरीब, छोटा या बड़ा
हो, उससे क्षमा मांगी जाए। व्यक्ति जिसे अपने लिए पसंद करता
है, वही दूसरों के लिए भी पसंद करे। मानसिकता में भौतिक
संपत्ति और सांसारिक आवश्यकताओं का महत्त्व न हो। परमेश्वर द्वारा प्रदत्त
आशीर्वाद और संसाधनों का उपयोग प्रसन्नता और संतोष के साथ किया जाए, परंतु उन्हें जीवन का अंतिम उद्देश्य न माना जाए। संभव हो तो, समर्पण, बल, वाणी और धन से परमेश्वर
की सृष्टि की सेवा की जाए।
जिस
व्यक्ति के भीतर पवित्र विचार और गुण होते हैं, मुराक्बे की
प्रक्रिया से उसका चक्र शीघ्र प्रकाशित हो जाता है। चक्र के प्रकाशित होने
से चेतना में आंतरिक ज्योति का संचार होता है और चेतना का दर्पण शुद्ध और पारदर्शी
हो जाता है।
मुराक्बा
एक ऐसी साधना है, जिसमें आध्यात्मिक गुरु या मर्शिद (रूहानी
मार्गदर्शक) के निर्देशों का पालन अनिवार्य होता है। यदि शिष्य के भीतर कोई
विरोधाभास या असहमति है और वह गुरु के आदेशों का पालन नहीं करता, तो मुराक्बे की प्रक्रिया अधूरी रहती है। मुराक्बे में सफलता के लिए
आत्मसमर्पण और पूर्ण समर्पण की आवश्यकता होती है।
मुराक्बा
के माध्यम से व्यक्ति बाह्य संसार की तरह ही आंतरिक या ग़ैब (अदृश्य) की दुनिया से
भी परिचित होता है। जब शिष्य ग़ैब की दुनिया में प्रवेश करता है, तो जैसे वह नासूत (भौतिक जगत) में जीवन के सभी पहलुओं से अवगत होता है और
अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वैसे ही वह ग़ैब की दुनिया
में भी आकाशगंगा और अनगिनत आकाशीय मंडलियों को देखता है। वह फरिश्तों से परिचित
होता है और उनसे संवाद स्थापित करता है। उसके समक्ष वह सभी अदृश्य सत्य प्रकट हो
जाते हैं, जिनके आधार पर यह ब्रह्मांड रचनात्मक रूप से
अस्तित्व में आया है। वह यह भी देखता है कि ब्रह्मांड की संरचना में कौन-कौन सी
ऊर्जा और रोशनियाँ कार्यरत हैं। इन रोशनियों का स्रोत क्या है, ये कैसे उत्पन्न हो रही हैं, और इनकी मात्रा में
परिवर्तन से ब्रह्मांड की संरचना पर कैसे प्रभाव पड़ रहा है। शिष्य की
आँखें यह भी देखती हैं कि इन रोशनियों का मूल स्रोत "अनवार" (उज्ज्वल
प्रकाश) है। इसके पश्चात, वह उस दिव्य जलाल की उद्घाटन का
अनुभव करता है, जो इन रोशनियों को नियंत्रित करता है।
संस्थापक क़लंदर चेतना कलंदर
बाबा औलिया (रह.) ने मुराक्बा का एक संगठित और संरचित प्रणाली विकसित की है। जिस प्रकार किसी भी विद्याओं को आत्मसात करने हेतु शिष्य गुरु के मार्गदर्शन में "अलिफ, बे, पे, ते" का अभ्यास करता है, वाक्य निर्माण में दक्षता प्राप्त करता है और तत्पश्चात ग्रंथों का अध्ययन उसकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन जाता है, उसी प्रकार पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति हेतु भी आध्यात्मिक गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है।
ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी
कलंदर शऊर
अच्छी है बुरी है, दुनिया (dahr) से शिकायत मत कर।
जो कुछ गुज़र गया, उसे याद मत कर।
तुझे दो-चार सांसों (nafas) की उम्र मिली है,
इन दो-चार सांसों (nafas) की उम्र को व्यर्थ मत कर।
(क़लंदर बाबा औलिया)