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मनुष्यों के बीच सृष्टि की शुरुआत से संवाद करने का तरीका प्रचलित है। ध्वनि की तरंगें, जिनके अर्थ निश्चित किए जाते हैं, श्रोताओं को सूचित करती हैं। यह तरीका उसी आदान-प्रदान की परछाई है जो 'आत्मा के अहंकार की तरंगों' (waves of Self-ego) के बीच होता है। यह देखा गया है कि मूक व्यक्ति अपने होंठों की हल्की हलचल से सब कुछ कह देता है, और समझने योग्य सभी लोग उसे समझ जाते हैं। यह तरीका भी पहले तरीके का प्रतिबिंब है। जानवर बिना आवाज के एक-दूसरे से सूचित होते हैं। यहाँ भी 'आत्मा के अहंकार की तरंगों' (waves of Self-ego) काम करती हैं। पेड़ एक-दूसरे से संवाद करते हैं। यह संवाद केवल आमने-सामने के पेड़ों में नहीं होता, बल्कि दूर-दराज के पेड़ों में भी होता है, जो हजारों मील की दूरी पर स्थित होते हैं। यही नियम अणुओं और अन्य ठोस पदार्थों में भी लागू होता है। कंकड़ों, पत्थरों, मिट्टी के कणों में भी विचारों का आदान-प्रदान इसी प्रकार होता है।
ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी
कलंदर शऊर
अच्छी है बुरी है, दुनिया (dahr) से शिकायत मत कर।
जो कुछ गुज़र गया, उसे याद मत कर।
तुझे दो-चार सांसों (nafas) की उम्र मिली है,
इन दो-चार सांसों (nafas) की उम्र को व्यर्थ मत कर।
(क़लंदर बाबा औलिया)