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जीवंत तस्वीर को समझने के लिए
यह आवश्यक है कि इसे मात्र एक भौतिक शरीर के रूप में न देखा जाए, बल्कि इसे चेतना के रूप में समझा जाए। हालांकि, इसे
केवल चेतना कहना भी अपर्याप्त है, क्योंकि चेतना स्वयं हमारी
पहचान और अनुभव का वह आधारभूत माध्यम है, जिस पर समस्त अस्तित्व
आधारित है। यह सत्य है कि भौतिक शरीर के नष्ट होने के साथ उसका घनत्व और प्रदूषण
समाप्त हो जाता है, किंतु यह भी स्पष्ट है कि चेतना, शरीर के विनाश के बाद भी, समाप्त नहीं होती। यह किसी
अन्य आयाम में स्थानांतरित हो जाती है।
सभी आकाशीय ग्रंथ एक केंद्रीय
विचार प्रस्तुत करते हैं: मनुष्य केवल भौतिक शरीर नहीं है, बल्कि वह मूल रूप से चेतना है। जन्म से मृत्यु तक की यात्रा के विश्लेषण
से यह स्पष्ट होता है कि गर्भ में जिस चेतना की नींव रखी गई थी, वह समय के साथ दो दिशाओं में कार्य करती है: एक ओर वह घटती है, जिससे मनुष्य अतीत में जाता है, और दूसरी ओर वह
बढ़ती है, जो भविष्य की ओर अग्रसर होती है। चेतना का यह घटना
और बढ़ना, मानव जीवन की अवधि और उसकी अवस्थाओं का निर्धारण
करता है।
चेतना के इन अवस्थाओं को
कालखंडों में विभाजित किया गया है। प्रथम अवस्था को "शैशव" कहा जाता है, द्वितीय को "यौवन," और तृतीय को
"वार्धक्य।" अंततः, वह चेतना, जो इस भौतिक अस्तित्व का आधार है और जिसके माध्यम से शरीर अपनी क्रमिक
विकास प्रक्रियाओं को पूर्ण करता है, शाश्वत रहती है। चेतना
के इस निरंतर प्रवाह और स्थायित्व में ही जीवन की वास्तविकता और इसका रहस्य निहित
है।
ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी
कलंदर शऊर
अच्छी है बुरी है, दुनिया (dahr) से शिकायत मत कर।
जो कुछ गुज़र गया, उसे याद मत कर।
तुझे दो-चार सांसों (nafas) की उम्र मिली है,
इन दो-चार सांसों (nafas) की उम्र को व्यर्थ मत कर।
(क़लंदर बाबा औलिया)