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जब हम जीवन का विश्लेषण करते
हैं, तो एक ही सत्य सामने आता है: आदम के हर पुत्र और हव्वा की हर
पुत्री सुखी रहकर जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। लेकिन जीवन का भौतिक दृष्टिकोण हर
कदम पर उन्हें निराश करता है, क्योंकि हमारा हर पल नश्वर और
परिवर्तनशील है। भौतिक दृष्टि से हमें यह भी ज्ञात नहीं है कि सच्चा सुख क्या होता
है और इसे कैसे प्राप्त किया जाए। सच्चे सुख से परिचित होने के लिए आवश्यक है कि
हम अपनी मूल आधार (आधारभूत सत्य) को खोजें।
जब हम कुछ नहीं थे, तब भी कुछ न कुछ अवश्य थे, क्योंकि ‘कुछ न होना’
हमारे अस्तित्व को नकारता है। हमारी भौतिक जीवन मां के गर्भ से आरंभ होती है,
और यह पदार्थ एक विशेष प्रक्रिया से गुजरकर अपनी पराकाष्ठा पर
पहुंचता है, जिससे एक जीवंत तस्वीर शून्य से अस्तित्व में
आती है। इस तस्वीर को परिवेश से ऐसी शिक्षा मिलती है कि वह यह समझ ही नहीं पाती कि
सच्चा सुख पाने का तरीका क्या है और इसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।
सच्चे सुख से आत्मसात होने के लिए मनुष्य को सबसे पहले यह समझना चाहिए कि जीवन का आधार केवल शरीर नहीं है, बल्कि वह सत्य है जिसने स्वयं के लिए शरीर को आवरण बना लिया है। जन्म के बाद जीवन का अगला चरण हमारे सामने यह दिखाता है कि हमारा हर पल मरता रहता है और हर पल की मृत्यु, अगले पल के जन्म का कारण बनती है। यही पल कभी बचपन होता है, कभी किशोरावस्था, कभी जवानी, और अंततः बुढ़ापे में परिवर्तित हो जाता है।
ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी
कलंदर शऊर
अच्छी है बुरी है, दुनिया (dahr) से शिकायत मत कर।
जो कुछ गुज़र गया, उसे याद मत कर।
तुझे दो-चार सांसों (nafas) की उम्र मिली है,
इन दो-चार सांसों (nafas) की उम्र को व्यर्थ मत कर।
(क़लंदर बाबा औलिया)