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धर्म व्यक्ति को विश्वास (यकीन)
के एक विशेष ढांचे में समाहित करता है, जहाँ संदेह,
विचारात्मक जटिलताएँ और भ्रम समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति अपनी
आंतरिक दृष्टि से ग़ैब (अदृश्य) जगत के तत्वों और वहां स्थित परिवर्तनीय रूपों के दर्शन
करता है। इस अदृश्य अनुभव से व्यक्ति का अपने परमेश्वर के साथ एक गहरे और स्थायी
संबंध का निर्माण होता है, जिससे वह स्वयं को परमेश्वर की
विशुद्ध और अचल गुणों से पूर्ण रूप से अभिव्यक्त और आच्छादित अनुभव करता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से, यदि किसी प्राणी के भीतर सक्रिय और
जागृत दृष्टिकोण का अभाव होता है, तो वह विश्वास के क्षेत्र
में प्रवेश नहीं कर सकता। जब कोई व्यक्ति विश्वास के इस क्षेत्र में प्रवेश करता
है, तब उसके मानसिक और आध्यात्मिक संरचना से नकारात्मक तत्व
जैसे विनाश और शैतानियत का परित्याग होता है। वहीं यदि किसी व्यक्ति के लिए ग़ैब
का उद्घाटन नहीं होता, तो वह निरंतर विघटन और शैतानियत के
प्रभाव में स्थित रहता है। यही कारण है कि आज की अत्यधिक विकसित और उन्नत तकनीकी
दुनिया में भी, जहां अपार समृद्धि और भौतिक सुख-सुविधाएँ
उपलब्ध हैं, हर व्यक्ति मानसिक अशांति, चिंताओं और अस्तित्व की असुरक्षा का शिकार हो जाता है। यह विषमता इस तथ्य
से उत्पन्न होती है कि विज्ञान केवल भौतिकता (मेटर) में विश्वास करता है, जबकि भौतिकता अस्थायी और काल्पनिक है। इसके परिणामस्वरूप विज्ञान द्वारा
की गई सभी प्रगति, अन्वेषण, और भौतिक
सुख-सुविधाएँ क्षणिक और नश्वर होती हैं। जिस अस्तित्व की नींव ही अस्थिरता और नाश
पर आधारित हो, वह कभी भी स्थायी और वास्तविक सुख की प्राप्ति
नहीं कर सकता। धर्म और नास्तिकता में एक मौलिक अंतर यह है कि नास्तिकता व्यक्ति के
मन में शंका, अस्थिरता और अस्तित्व के प्रति अनिश्चितता की
भावना उत्पन्न करती है, जबकि धर्म सम्पूर्ण मानसिक, भावनात्मक और कार्यात्मक संरचनाओं को एक निराकार, अनन्त
और स्थायी सत्ता से जोड़ देता है, जो शाश्वत सत्य और अडिग
विश्वास के प्रति मार्गदर्शन करता है।
ख्वाजा शम्सुद्दीन अजीमी
कलंदर शऊर
अच्छी है बुरी है, दुनिया (dahr) से शिकायत मत कर।
जो कुछ गुज़र गया, उसे याद मत कर।
तुझे दो-चार सांसों (nafas) की उम्र मिली है,
इन दो-चार सांसों (nafas) की उम्र को व्यर्थ मत कर।
(क़लंदर बाबा औलिया)